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दोस्तों जब भी हम ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं तो हमारा ध्यान लग ही नहीं पाता है या फिर हमारे मन में शंका रहती है कि हमें पता ही नहीं होता कि ध्यान क्या होता है और कैसे लगाया जाता है। इसी दुविधा का हल भगवान बुद्ध ने बड़े ही सरल शब्दों में किया है। भगवान बुद्ध की प्रतिमा हम सब ज्यांते हैं और उन्होंने कितने सरल तरीके से ध्यान की विधियां बताई है और किसी ने नहीं बताई। यह कहानी पूरी सुनने के बाद आपको ध्यान के बारे में कोई भी शंका नहीं रहेगी तो चलिए कहानी को शुरू करते हैं.
Buddha disciple |
एक बार बुद्ध का । एक शिष्य आया और उनसे बोला बुद्ध मुझे आपके सानिध्य में 3 साल हो गए हैं। मैं रोज आपके बताए अनुसार ध्यान लगाता हूं। फिर भी मुझे 3 साल में ध्यान से कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ। वही मेरे मित्र कहते हैं कि उन्हें कुछ ना कुछ ध्यान करके प्राप्त हुआ है। पर फिर मुझे क्यों नहीं हुआ, मुझे माफ करें। बहुत मेरे मन में यह विचार आने लगे हैं कि ध्यान से कुछ मिलता भी है या फिर यह मिथ्या है क्योंकि मुझे तो आज तक कुछ भी नहीं मिला और जो लोग कहते हैं कि मुझे ध्यान का अनुभव प्राप्त हुआ। मुझे लगता है कि वह सब झूठ बोलते हैं। आपने ही कहा था कि अपनी बुद्धि से खोजो और अब इतने वर्षों तक ध्यान करने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि ध्यान से कुछ नहीं मिलता। आप ही मेरा मार्गदर्शन करें। वह तो मुस्कुराए और बोले इसका जवाब मैं कल सुबह। ध्यानसभा में वहां आना अगले दिन बुद्ध सभी को इकट्ठा करके उपदेश देने लगे।
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उन्होंने कहा, आज मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊंगा। उसे तुम बस एक कहानी की तरह सुनना और समझना है पूरी तरह से एक काल्पनिक कहानी है। बुद्ध एक गुरु ज्ञान के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। कहा जाता है। उन्होंने एक सोने का पहाड़ जिसका चैहरा हिरे का बना हुआ था, उसे खोज लिया था जिससे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। वह पहाड़ पर अकेले रहते थे। उन्होंने किसी को भी अपना शिष्य नहीं बनाया। काफी समय बाद तीन भाई उनके शिष्य बनने के लिए उनके पास गए और उनसे ज्ञान ग्रहण करने को कहा। गुरु मान गए और उन्हें अपने साथ में ही रख लिया। फिर तीनों ने उस सोने के पहाड़ के बारे में पूछा। गुरु ने कहा, मैं तुम तीनों को इसका जवाब बारी-बारी से दूंगा। और इसका रास्ता भी बताऊंगा कि तुम उस पर चढ सकते हो मेरे गुरु ने पहले शिष्य को बुलाया और एक रास्ते की तरफ इशारा किया और कहा कि यहां से तुम सीधे चले जाना और कहीं मत मुडना यह रास्ता तुम्हें सीधे उस पहाड़ तक ले जाएगा और कहीं भी अपनी यात्रा मत रोकना वह शिष्य अपने गुरु का आशीर्वाद लेकर यात्रा के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उसे काफी कठिनाई हुई। उसकी बाहों में कुछ कीड़े मकोड़ों ने भी उसे कांटा कुछ जंगली जानवरों से भी उसका सामना करणा पडा जैसे तैसे जंगल पार कर रहा था, तभी रास्ते में उसे भूख लगी। उसने जंगल में कुछ खाने का इंतजाम किया। खाना खा कर फिर से वह उसके बाद वह एक मरुस्थल में पहुंच गया। वह काफी बड़ा था। उसके पास खाने के लिए थोड़ा सा खाना बचा हुआ था लेकिन उसके पास पानी नहीं था।
प्यास से बहुत व्याकुल हो रहा था। फिर भी वह चलता रहा। चलते चलते अंत में वह बेहद थक गया। अब उसके लिए प्यास है ना अब यह सवाल आने लगा कि कहीं गुरु ने कोई गलत मार्ग तो नही बता दिया। अब धीरे-धीरे उसका चेहरा मुड़ जाने लगा और गला सूखने के कारण वह मरुस्थल में गिर गया। तभी अचानक से वहां बारिश की बूंदें गिरने लगी। वह उठा और तुरंत अपना बर्तन भरने लगा और अपनी प्यास बुझा के आगे बढ़ गया।
अब एक नदी के किनारे पहुंच गया था। नदी पार करने के लिए उसने एक नौका बनाई और उसे पार करने लगा और अचानक से बबनडर आया और उस में डुबती चली गई, वह आदमी भी पानी में डूबने लगा और डूबते हुए सोचने लगा कि गुरु जी ने कही गलत तो मार्ग नहीं बताया था!
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बार-बार मैं मौत के करीब जा रहा हूं। अब तो पक्का ही मैं मरणे वाला हु। तभी वहां पर कुछ लोग पहुंच गए और उस इन्सान को बचा लिया। वह पास के गांव के रहने वाले थे। इसलिए उन्होंने उस शिष्य को अपने घर ले जाकर खाना खिलाया और कुछ खाना खाने के बाद उसे आगे के रास्ते के लिए थोड़ा सा खाना दे दिया। उसी से फिर से आगे बढ़ गया। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा रास्ते मै उसने देखा कि आगे एक बहुत बड़ी खाई थी। उसे देख कर और जोर से चिल्ला कर बोला। मुझे गलत रास्ता दिखाया है। मस्थिश वाला सोने का पहाड़ तो छोड़ो यहां तो कोई रास्ता तक नहीं है। मेरी सारी मेहनत व्यर्थ हो गई और वह गुरु के पास पहुंच गया और कहा आपने मुझे गलत मार्ग क्यों बताया। वहां तो कोई पहाड़ी नहीं था। बस एक जंगल मरुस्थल नदियां और खाई । के अलावा कुछ नहीं था।
वहां पर गुरु ने कहा तो तुमने इन सब से क्या सीखा शिष्य ने कहा, मैं कुछ सीखने थोड़ी गया था। मैं तो सोने के पहाड़ को खोजने गया था वहा पर तो कुछ मिला ही नहीं। उस रास्ते से मैं क्या सीखता रास्ता लंबा था। बेहद कठिन था। उसे पाने की चाह में मैंने सब पार कर लिया है। लेकिन इतनी मुश्किलों के बाद भी मुझे कुछ नहीं मिला तो गुरु ने कहा की.
मैं तुम्हारी दूसरे भाइयों को भेजता हूं। शिष्य ने कहा, उन्हें भी वहां कुछ नहीं मिलेगा। वहां पर कुछ है ही नहीं, क्या मिलेगा वहां गुरु ने अपने दूसरे शिष्य को आशीर्वाद दिया और वह भी उस मार्ग पर निकल गया। कुछ दिन के बाद वह भी वापस आ गया तो गुरु ने पूछा, तुम्हें क्या दिखा ।
मुझे कोई पहाड़ नहीं दिखा। वहां तो खाई थी। मुझे लगा शायद मैं आप के बताए रास्ते से भटक गया हूं। मैं आपसे रास्ता पूछने आ गया तो गुरु ने पूछा, तुमने इन सब से क्या सीखा उसने कहा। गुरुदेव मैंने अपनी पूरी यात्रा एक जंगल से शुरू कर उसे पार करते हुए आगे निकल गया। मैंने यही देखा कि कैसे सारे जीव एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं और एक दूसरे का खाना भी बनते हैं। उसके बाद में एक मरुस्थल में पहुंच गया। वहां पूरे रास्ते में मैं पानी के लिए व्याकुल रहा। एक समय के लिए मुझे ऐसा लगा जैसे मैं मृत्यु की करीब आ गया हूं। जीवन का मूल क्या होता है। एक-एक सांस की कीमत क्या होती है. तब मैंने आकाश से अमृत को बरसते देखा। तब उस पानी को पी कर मुझे वापस जीवन मिल गया । वो पानी बेहद मीठा था तो मुझे एहसास हुआ कि पानी ही असली अमृत होता है। उसके बाद मैं एक नदी के पास पहुंचा। स्वच्छ सुंदर थी। उसका पानी बहुत बहुत स्वच्छ था । वहां पर बने बांस के पेड़ों को काटकर उसने एक नौका बनाई जिसके द्वारा नदी को पार कर रहा था। तभी वहां पर एक बवंडर आ गया। मैं डूबने लगा तो मुझे कुछ मछुआरों ने वहां पर बचा लिया तो मुझे एहसास हुआ कि मुसीबत के समय हमेशा चाहते हैं कि कोई हमारी मदद करें, लेकिन हम कभी किसी की मदद नहीं करते। उसके बाद उन मछुआरों ने मुझे अपने घर ले जाकर भोजन कराया। वहां मैंने देखा कि कैसे लोग भूख के मारे तड़प रहे हैं। एक बेहतर जीवन के लिए तरस रहे हैं। कोई बीमार है तो किसी का इलाज कोई पत्नी अपने पति के वियोग में रो रही है। तुझे जड़ी बूटियों का थोड़ा ध्यान था जिसके कारण मैंने वहां एक बीमार बच्चे का इलाज किया और उसे.
मुझे महसूस हुआ कि दूसरों की मदद करने पर कितना सुकून मिलता है। उन मछुआरों के पास खुद के लिए खाना नहीं था। फिर मुझे भोजन कराया और रात्रि के लिए भोजन भी दिया जिसे लेकर में आगे की यात्रा पर निकल गया। उसके बाद आगे नदी के पास पहुंच गया हूं। मुझे एकदम शांत वहां किसी की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। बस मैं अपनी सांसों को सुन रहा था। उस समय मुझे लगा कि मैं आप के बताए रास्ते से भटक गया हूं क्योंकि वहां कोई भी सोने की चटताण नहीं थी। तब मैं वापस आपके पास आया। दोबारा से सही मार्ग पूछने के लिए गुरुदेव क्या मैं गलत मार्ग पर चला गया था। गुरु ने कहा नहीं। तुम बिल्कुल सही मार्ग पर गए थे और जल्द ही तुम्हें वह पहाड़।
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सतगुरु ने अपने तीसरे शिक्षा से पूछा, तुम भी पहाड़ खोजना चाहते हो। तो शिष्य ने कहा, गुरुदेव मुझे उस रास्ते पर पहाड़ मिलेगा तो मैं नहीं जानता। लेकिन मेरे शिष्य भाइयों ने जो वहां के बारे में बताया है, लेकिन मेरे शिष्य भाइयों ने जो वहां के बारे में बताया है, उसे जाना चाहता हूं। जब तीसरा शिक्षा गुरु का आशीर्वाद लेकर यात्रा पर निकल पड़ा। कुछ दिन बाद कोशिश से वापस आया। गुरु से देखकर समझ गए थे कि उसे वह पहाड़ मिल गया है। उसके चेहरे पर अलग ही चमक थी। वह काफी शांत था, जिससे गुरु को प्रणाम करते हुए कहा कि गुरुदेव आपने जो मार्ग दिखाया, उसका मैं बहुत आभारी हूं। मुझे वह सोने का पहाड़ मिल गया है जिसका शीष हिरे का है.!
यह सुनकर बाकी दोनों बोले क्या तुम्हें वह खाई ही नहीं मीली। तीसरे शिष्य ने कहा, मुझे मिली थी। मैंने वह ऐसास किया जो तूने किया था, आखिर में मुझे वह खाई मिली जहां अपार शांति थी। इतनी शांति मुझे कहीं नहीं मिली। मुझे पता सही मार्ग पर बाढ़ यही है। उसे ढूंढने के लिए मैंने खाई में कदम बढ़ा दिया। उस समय मेरे मन में भी बहुत सी आशंका है। उस को करीब से देख लिया था इसलिए मुझे उसका वह ऐहसास नहीं था। अब मुझे बस वो पहाड़ ढूंढना था और मै ने उस तरफ कदम बढ़ा दिया। जब मैं आगे बढ़ा तब मैंने देखा कि मैं खाई में गिरने की जगह हवा में उड़ रहा हूं और इसी तरह में।
उड़ कर जब मैं आगे पहुंच जाऊं तो वहां काफी अंधेरा था, बिल्कुल भी रोशनी नही थी। उसके बाद जब मैं और आगे बढ़ा तब देखा कि आगे तीव्र रोशनी है और रोशनी इतनी थी कि मुझे उसमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मै सिधा बढ़ गया। उस समय भी शांत रहा था, काप रहा था लेकिन फिर भी आगे बढ़ता रहा और अंत में मुझे सोने का पहाड़ मेरे सामने मस्थिशक हिरे का था। उसके ऊपर जाने के बाद मेरा मन बिल्कुल शांत हो गया। बेहद खुशी हुई और मन आनंदित हो। कहानी पूरी होने के बाद बुद्ध ने सबसे ऊंचा उसके बाद बुद्ध के शिष्य उनके।
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हाथ जोड़कर खड़े हो गए और उन तीनों की गुरु ने जो रास्ता उन्होने दिखाया था, वह रास्ता उनके अंतर मन की लगन और निष्ठा सही थी। लेकिन वह मैं तो था। जो भी दुविधा मार्ग में आई थी। इसी वजह से कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया और उसे महत्वाकांक्षी हो गया। उसके मन में बस वह पहाड़ चल रहा था, जिसकी वजह से वह आसपास की चीजों से कोई भी सीख नहीं ले सका। उसके आसपास ज्ञान ही ज्ञान था। दूसरे शिष्य ने सब देखा और समझा की प्रकृति कैसे काम करती है। जीवन कैसे जिया जाता है। मौत के समय कैसा लगता है। उसने मौत और सांसो की मूल्य को समझा। उसने अमृत को पहचाना कि पानी अमृत है। वह आखिर तक गया और वापस गया.
हां होती मंजिल को देखकर घबरा गया था। शांति उसको पसंद आई थी, लेकिन वह नहीं समझ में आता है और वह उसे गलत मार्ग समझकर गुरु के पास वापस लौट आया। लेकिन इस यात्रा से उसने कुछ पाया लेकिन तीसरे शिष्य को पाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। वह तो बस उस मार्ग को जाना चाहता था। उसे देखना चाहता था जो उसके साथियों ने देखा था। फरक बस इतना था कि वह खाई की गहराइयों में चला गया जहां अनंत शांति देवी अंधकार में आगे बढ़ता गया और एक समय के बाद उसने रोशनी देखी और वह पहाड जिसकी उसे तलाश थी। वो पहाड कोई और नहीं बल्कि उसका शरीर था जिसमें सोना होता है। शरीर था जबकि हीरे का शीश उसका मस्तिष्क था जिसमें उसे बहुत सारा ज्ञान और शांति अनुभव हो रही थी। अब जीन शिष्य ने मुझसे कहा था कि उसने 3 साल में ध्यान से कोई भी चीज प्राप्त नहीं की। वह बुद्ध से जाकर बोला, मुझे माफ कर दे। मैं पहेली यो से बंधा हुआ था। लेकिन अब मैं कोशिश करूंगा कि आपका दूसरा शिष्य बन कर दिखाऊ । अब मेरे मन में कोई सवाल नहीं है। दोस्तों हम सबका ध्यान मंजिल की तरफ होता है। लेकिन असली आनंद तो रास्ते का होता है। मार्ग का होता है जो मार्ग का आनंद लेते हुए मंजिल का सफर तय करता है। वह मंजिल तक पहुंचते पहुंचते ही बता शांति को प्राप्त कर लेता है। और जो आदमी सिर्फ मंजिल पर पहुंचने की चिंता करता है, वह मार्ग का आनंद ही नहीं ले पाता। इसीलिए मंजिल से ज्यादा मार्ग जरूर हो जाता है। अगर आपको यह कहानी थोड़ी सी भी ज्ञानवर्धक लगी तो इसे अपने सगे संबंधियों और दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें और ऐसी कहानियां सुनने के लिए हमारे वेबसाईट को सब्सक्राइब करें और इस blog post को शेअर जरूर कर दें तो मिलते हैं अगली कहानी में तब तक के लिए अपना। खयाल रखे. धन्यवाद